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Monday, 15 April 2013

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आग की भीख हिंदी कविता 

- रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar)

धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा

कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा

कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है

मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है

दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे

बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे

प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ

चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ


बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है

कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है

मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा?

यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?

आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा

भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा

तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ

ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ


आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है

बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है

अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ डेर हो रहा है

है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है

निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है

निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है

पंचास्यनाद भीषण, विकराल माँगता हूँ

जड़ताविनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ


मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है

अरमान आरजू की लाशें निकल रही हैं

भीगी खुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं

सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं

इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे

पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे

उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ

विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ


आँसू भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे

मेरे शमशान में आ श्रंगी जरा बजा दे

फिर एक तीर सीनों के आरपार कर दे

हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे

आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी दे

अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे

विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ

बेचैन जिन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ


ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे

जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे

गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे

इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे

हम दे चुके लहु हैं, तू देवता विभा दे

अपने अनलविशिख से आकाश जगमगा दे

प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ

तेरी दया विपद् में भगवान माँगता हूँ

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हिंदी कविता विजयी के सदृश जियो रे

- रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar)

वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो

चट्टानों की छाती से दूध निकालो

है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो

पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो


चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे

योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे


जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है

चिनगी बन फूलों का पराग जलता है

सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है

ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है


अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे

गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे


जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है

भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण है

है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है

वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है


उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है

तलवार प्रेम से और तेज होती है


छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये

मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये

दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है

मरता है जो एक ही बार मरता है


तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे

जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे


स्वातंत्र्य जाति की लगन व्यक्ति की धुन है

बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है

वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे

जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे

जब कभी अहम पर नियति चोट देती है

कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है
नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है
वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है

चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे

धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे

उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है

सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है
विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिंतन है
जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है

सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पियेगा

पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा!

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कृष्ण की चेतावनी (रश्मिरथी) हिन्दीमे 

रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar)


वर्षों तक वन में घूम-घूम, बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,

सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, पांडव आये कुछ और निखर।

सौभाग्य न सब दिन सोता है,

देखें, आगे क्या होता है।


मैत्री की राह बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को,

दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को,

भगवान् हस्तिनापुर आये,

पांडव का संदेशा लाये।


'दो न्याय अगर तो आधा दो, पर, इसमें भी यदि बाधा हो,

तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रखो अपनी धरती तमाम।

हम वहीं खुशी से खायेंगे,

परिजन पर असि न उठायेंगे!


दुर्योधन वह भी दे ना सका, आशीष समाज की ले न सका,

उलटे हरि को बाँधने चला, जो था असाध्य साधने चला।

जब नाश मनुज पर छाता है,

पहले विवेक मर जाता है।


हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया,

डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान् कुपित होकर बोले-

'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,

हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।


यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है,

मुझमें विलीन झंकार सकल, मुझमें लय है संसार सकल।

अमरत्व फूलता है मुझमें,

संहार झूलता है मुझमें।


बाँधने मुझे तो आया है, जंजीर बड़ी क्या लाया है?

यदि मुझे बाँधना चाहे मन, पहले तो बाँध अनन्त गगन।

सूने को साध न सकता है,

वह मुझे बाँध कब सकता है?


हित-वचन नहीं तूने माना, मैत्री का मूल्य न पहचाना,

तो ले, मैं भी अब जाता हूँ, अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।

याचना नहीं, अब रण होगा,

जीवन-जय या कि मरण होगा।


टकरायेंगे नक्षत्र-निकर, बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,

फण शेषनाग का डोलेगा, विकराल काल मुँह खोलेगा।

दुर्योधन! रण ऐसा होगा।

फिर कभी नहीं जैसा होगा।


भाई पर भाई टूटेंगे, विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,

वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे, सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।

आखिर तू भूशायी होगा,

हिंसा का पर, दायी होगा।'


थी सभा सन्न, सब लोग डरे, चुप थे या थे बेहोश पड़े।

केवल दो नर ना अघाते थे, धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।

कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,

दोनों पुकारते थे 'जय-जय'!

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